इक बे-कराँ सुकूत है अब शामिल-ए-हयात उफ़ किस जगह पे ठहर गई नब्ज़-ए-काएनात दुख है न मस्तियाँ हैं न आवारगी कोई अल्लाह-रे क़यामत-ए-पज़मुर्दगी-ए-ज़ात नश्शा था ज़िंदगी थी तबीअ'त जवान थी अब ग़म नहीं जो तेरा तो बे-रंग है हयात मेरे जुनूँ को आप सुख़न-गुस्तरी कहें पिन्हाँ हैं एक लफ़्ज़ में कितने ही तजरबात आओ 'रफ़ीक़' ढूँढें कोई हम-ख़याल फिर नय दिन में चैन है न सुकूँ हम को रात रात