एक चेहरा तिरा है घर के लिए एक चेहरा भरे नगर के लिए दूसरा इश्क़ अब नहीं होगा दर्द काफ़ी है एक सर के लिए दिल बहलता है ऐसी बातों से कब है माँगी दुआ असर के लिए और भी ज़ाद-ए-राह हैं लेकिन लाज़मी है यक़ीं सफ़र के लिए बे-बसर तू नहीं है मान लिया हो बसीरत भी राहबर के लिए क़रिया-ए-जाँ में ख़ुश्क-साली है दिल तरसता है चश्म-ए-तर के लिए कितने ज़ी-रूह फिर रहे हैं यहाँ क्यों हैं सब ज़ाब्ते बशर के लिए क्यों भला एक दिल को दे डाला ग़म बना था जो शहर भर के लिए यूँ 'हिदायत' तलाश में अपनी जैसे तरसे शजर समर के लिए