है क्या क्यों और कैसे छोड़ दे इन सब सवालों को सँभल जा अक़्ल दिल अब जानता है तेरी चालों को अक़ीदत में हक़ीक़त गुम हुई ऐसी कि अब अक्सर मुजस्सम देखते हैं हम ख़ुद अपने ही ख़यालों को ज़बाँ-बंदी का मौसम है चमन में क्या करें जा कर हर इक बुलबुल से कहना रोक रक्खे अपने नालों को अक़ीदत फ़िक्र को तक़लीद पर मजबूर करती है मुक़ल्लिद दिल बना देता है कितने अक़्ल वालों को बचेगा क्या हमारे पास अपनी ज़िंदगानी से अगर तफ़रीक़ कर दें हम तुम्हारे चंद सालों को न दरवाज़ा खुला उस का न ही आया गया कोई तुम्हारे बाद बस अब देखते हैं दिल के जालों को कोई रौज़न कोई खिड़की कोई रस्ता कहीं पर हो अंधेरे ढूँडते हैं हर तरफ़ दिन के उजालों को पड़े हैं अक़्ल पे जो हर अक़ीदत-मंद सालिक की न जाने कैसे खोलोगे 'हिदायत' ऐसे तालों को