इक दिल में था इक सामने दरिया उसे कहना मुमकिन था कहाँ पार उतरना उसे कहना हिज्राँ के समुंदर में हयूला था किसी का इम्काँ के भँवर से कोई उभरा उसे कहना इक हर्फ़ की किरची मिरे सीने में छुपी थी पहरों था कोई टूट के रोया उसे कहना मुद्दत हुई ख़ुर्शीद गहन से नहीं निकला ऐसा कहीं तारा कोई टूटा उसे कहना जाती थी कोई राह अकेली किसी जानिब तन्हा था सफ़र में कोई साया उसे कहना हर ज़ख़्म में धड़कन की सदा गूँज रही थी इक हश्र का था शोर-शराबा उसे कहना