एक हम सख़ावत में घर का घर लुटा बैठे एक वो ख़यानत से अपना घर सजा बैठे रौशनी का ज़िम्मा जो अपने सर लिया हम ने और कुछ न सूझा तो अपना घर जला बैठे अपने हार जाने का ग़म नहीं ज़रा मुझ को ग़म है मेरे अपने भी दुश्मनों में जा बैठे किस क़दर भरोसा था उन को ज़ात-ए-अक़्दस पर यूँही थोड़ी अपनी वो कश्तियाँ जला बैठे कल जो हँस के मिलते थे मुँह छुपाए फिरते हैं 'शम्स' आप क्यों उन को आईना दिखा बैठे