इक हर्फ़-ए-आरज़ू पे ख़ता-कार हम हुए इतनी सी बात थी कि गुनहगार हम हुए इक दिन किसी के ख़्वाब में सोए तमाम रात इक दिन किसी की आँख से बेदार हम हुए पहले तो ना-समझ थे ज़माने की आँख में फिर होते होते कितने समझदार हम हुए इस दौर-ए-बे-हुनर में हमें कौन पूछता वो तो कहो कि अपने ख़रीदार हम हुए पहले-पहल तो अक़्ल से उकताए कुछ बहुत फिर यूँ हुआ कि दिल से भी बेज़ार हम हुए मुद्दत के बाद ख़ुद से मोहब्बत हुई हमें मुद्दत के बाद अपने तलबगार हम हुए तेरे लिए किसी के मुख़ालिफ़ रहे थे हम तेरे लिए किसी के तरफ़-दार हम हुए चाहत की दास्ताँ भी रही हम से मुंसलिक दिल की कहानियों के भी किरदार हम हुए होना तो चाहते थे बहर-तौर आप सा आप ऐसे बद-लिहाज़ कहाँ यार हम हुए पल पल बदलते ठोर ठिकानों के शौक़ में इस पार हम हुए कभी उस पार हम हुए बदले हैं मौसमों की तरह हम भी ऐ 'रफ़ी' इक़रार हम हुए कभी इंकार हम हुए