ग़म भी तन्हा है और ख़ुशी तन्हा इस क़दर क्यों है ज़िंदगी तन्हा उस के चेहरे पे ख़ौफ़ सा क्यों है जा रहा है जो आदमी तन्हा हम उसे ग़म का राज़ समझा दें काश मिल जाए वो कभी तन्हा जुस्तुजू ग़म के तपते सहरा में जाने क्या सोच कर हँसी तन्हा चाँद को ले उड़े घने बादल थक गई शब खड़ी खड़ी तन्हा किस क़दर अजनबी लगी है 'रफ़ी' ज़िंदगी जब कहीं मिली तन्हा