एक ही शहर में रहते बस्ते काले कोसों दूर रहा इस ग़म से हम और भी हारे वो भी तो मजबूर रहा काल था अश्कों का आँखों में लेकिन तेरी याद न पूछ क्या क्या मोती मैं भी फ़राहम करने पर मजबूर रहा वो और इतना परेशाँ-ए-ख़ातिर रब्त-ए-ग़ैर की बात नहीं लेकिन उस के चुप रहने से दिल को वहम ज़रूर रहा हम ऐसे नाकाम-ए-वफ़ा के ग़ोल में आकर बैठे हो दुनिया की तक़दीर बदलना जिन का इक दस्तूर रहा हुस्न की शर्त-ए-वफ़ा जो ठहरी तेशा ओ संग-ए-गिराँ की बात हम हों या फ़रहाद हो आख़िर आशिक़ तो मज़दूर रहा वक़्त की बात है याद आ जाना लेकिन उस की बात न पूछ यूँ तो लाखों बातें निकलीं तेरा ही मज़कूर रहा ऐ मेरे ख़ुर्शीद-ए-शबी क्या वहम-ए-तुलू-ओ-ग़ुरूब तुझे एक तिरी गर्दिश ऐसी थी ख़ाना-ए-दिल बे-नूर रहा इश्क़ भी मोहर-ब-लब गुज़रा है दुनिया की क्या जुरअत थी उस की नीची नज़रों में भी ऐसा सख़्त ग़ुरूर रहा हम से उस का रब्त-ए-जुनूँ था एक हँसी की बात सी थी हम को आख़िर क्यूँ ये ख़ब्त-ए-सई-ए-ना-मशकूर रहा सुब्ह से चलते चलते आख़िर शाम हुई आवारा-ए-दिल अब मैं किस मंज़िल में पहुँचा अब घर कितनी दूर रहा