इक ख़्वाब-ए-आतिशीं का वो महरम सा रह गया दीवार-ओ-दर में शो'ला-ए-बरहम सा रह गया शेर-ए-वतन के प्याले पे थीं कल ज़ियाफ़तें आया जो ता-ब-लब तो फ़क़त सम सा रह गया माना वफ़ा बराए-वफ़ा इत्तिफ़ाक़ थी तुम सा रहा कोई न कोई हम सा रह गया इक ला-तअल्लुक़ी की फ़ज़ा दरमियाँ रही जब दो दिलों में फ़र्क़ बहुत कम सा रह गया उस सर्व-क़द की ताब-ओ-मुलाएम-रुख़ी का राज़ इस्याँ की शब में दीदा-ए-पुर-नम सा रह गया आख़िर हुई बहार मगर रंग-ए-गुल का ख़्वाब दिल में दुआ निगाह में शबनम सा रह गया इक उस के रंग-ए-रुख़ की जुनूँ-साज़ छूट से इस ज़िंदगी में ख़्वाब का आलम सा रह गया