इक इंक़लाब कि यकसर था उस के जाते ही कि दिल लहू नहीं पत्थर था उस के जाते ही वो उम्र भर मुझे जिस से रिहाई दे न सका मैं उस हिसार के बाहर था उस के जाते ही उसी के दम से था क़ाएम निज़ाम-ए-मय-ख़ाना कहीं सुबू कहीं साग़र था उस के जाते ही मुझे तो पहले ही अश्कों ने रास्ता न दिया ग़ुबार-ए-राह भी सर पर था उस के जाते ही तमाम शहर इक तस्वीर बन गया था 'शहाब' अजीब दीद का मंज़र था उस के जाते ही