एक कैफ़-ओ-मस्ती की ज़िंदगी है शीशे में किस ने मय निगाहों की ढाल दी है शीशे में कौन अब तसल्ली दे कौन मेरे काम आए जब हयात ख़ुद मेरी ढल गई है शीशे में ग़म-निगाह क्या जाने आँसूओं के ढलने से रौशनी तबस्सुम में दिलकशी है शीशे में नुक़रई तबस्सुम में कैफ़ियत है नग़्मों की झूमते हैं पैमाने नग़मगी है शीशे में इतने क्यों परेशाँ हो साग़र-ए-शिकस्ता से ज़िंदगी की रानाई आज भी है शीशे में अह्ल-ए-अक़्ल-ओ-दानिश की बात ये अगर सच है बे-ख़ुदी है बादे में आगही है शीशे में बात इशक़-ओ-मस्ती की मैं ने छेड़ दी 'अनवर' सागरों में सहबा है शायरी है शीशे में