फ़िराक़ से भी गए हम विसाल से भी गए सुबुक हुए हैं तो ऐश-ए-मलाल से भी गए जो बुत-कदे में थे वो साहिबान-ए-कश्फ़-ओ-कमाल हरम में आए तो कश्फ़-ओ-कमाल से भी गए उसी निगाह की नर्मी से डगमगाए क़दम उसी निगाह के तेवर सँभाल से भी गए ग़म-ए-हयात ओ ग़म-ए-दोस्त की कशाकश में हम ऐसे लोग तो रंज-ओ-मलाल से भी गए गुल ओ समर का तो रोना अलग रहा लेकिन ये ग़म कि फ़र्क़-ए-हराम-ओ-हलाल से भी गए वो लोग जिन से तिरी बज़्म में थे हंगामे गए तो क्या तिरी बज़्म-ए-ख़याल से भी गए हम ऐसे कौन थे लेकिन क़फ़स की ये दुनिया कि पर-शिकस्तों में अपनी मिसाल से भी गए चराग़-ए-बज़्म अभी जान-ए-अंजुमन न बुझा कि ये बुझा तो तिरे ख़त्त-ओ-ख़ाल से भी गए