इक माह-रू से कल की मुलाक़ात भी गई यूँ मेरे दिल से गर्मी-ए-जज़्बात भी गई बाग़-ए-दिल-ए-हज़ीन को सरसब्ज़गी की चाह बे-फ़ैज़ अब के बार ये बरसात भी गई रक़्स-ए-जुनूँ में महव थे हम शाम से मगर इरफ़ान-ए-ज़ात भी न हुआ रात भी गई सफ़्फ़ाक ज़ेहनियत को मिला जब से इक़्तिदार अम्न-ओ-सुकूँ की मुल्क से बोहतात भी गई पीने के बाद अक़्ल सलामत न रह सकी इस कश्मकश में इज़्ज़त-ए-सादात भी गई क़ाबू करेगा कौन जराएम को अब यहाँ मुल्की अदालतों से तो हक़ बात भी गई अब कौन मेरी भूक को सुफ़रेह अता करे हिस्से में जो थी मेरे वो ख़ैरात भी गई सीरत को कौन पूछे है सूरत के सामने चौखट से इक ग़रीब की बारात भी गई 'असअद' ज़रा सँभाल के खोला करो ज़बाँ पछताओगे बहुत ही अगर बात भी गई