इक मेहरबाँ की याद सताए तो क्या करें शब भर ख़याल उस का जगाए तो क्या करें हम हैं शबान-ए-हिज्र के मारे हमें कोई क़िस्से विसाल के जो सुनाए तो क्या करें माना कि शय बुरी है मगर फिर भी जब कोई ले कर तुम्हारा नाम पिलाए तो क्या करें बारिश हो मै-कदा भी हो मौसम भी सर्द हो ऐसे में तेरी याद भी आए तो क्या करें हम को भी है गुरेज़ मगर नाज़ से हमें साक़ी नज़र मिला के पिलाए तो क्या करें पास-ए-अदब की बात भी होती है शैख़ जी महफ़िल में यार जाम थमाए तो क्या करें चलते हैं 'शान' हम भी हरम को मगर वहाँ ज़मज़म भी तिश्नगी न मिटाए तो क्या करें