इक मुर्ग़-ए-चमन वक़्त-ए-सहर बोल रहा है सय्याद का हर राज़-ए-निहाँ खोल रहा है जज़्बात की लहरों पे तरन्नुम के ये नग़्मे ये कौन है कानों में जो रस घोल रहा है हक़ बात की अज़्मत का तो क़ाइल है ज़माना सच्चाई का मोती बहुत अनमोल रहा है क्यों राज़ तिरे दिल का हुआ जाता है इफ़्शा जादू है जो सर चढ़ के तिरे बोल रहा है हर बात कसौटी पे जो रखता है ज़माना हर हर्फ़ तमन्ना का तिरी तोल रहा है जब सर से कफ़न बाँध के तू घर से चला है क्यों अज़्म तिरा वक़्त-ए-सफ़र डोल रहा है कहते हैं 'जमील' आप को बेगाना-ए-हस्ती ये राज़ सर-ए-बज़्म कोई खोल रहा है