एक नाले में सारी रात गई एक हिचकी में काएनात गई दौलत-ए-ज़ीस्त थी अमानत-ए-दोस्त एक बात आई एक हात गई लुत्फ़ देखा न कुछ जवानी का क्या पलक मारते ये रात गई वक़्त-ए-आख़िर भी वो नहीं आए हाथ मलती हुई हयात गई पास थे तुम मज़ा था जीने का तुम गए लज़्ज़त-ए-हयात गई पाते ही दिल का भेद वो रूठे लब पे आई न थी कि बात गई क्या मिला दिल को बे-निशाँ कर के एक बेकस की काएनात गई ना'श-ए-अफ़सर नहीं उठी ये 'सरोश' किसी नौ-शाह की बरात गई