इक रंज ब-पैराया-ए-ज़र क्यों नहीं जाता कश्कोल-ए-हवस है तो ये भर क्यों नहीं जाता वो आइना-रू है तो मिरा रूप दिखाए मैं उस के मुक़ाबिल हूँ सँवर क्यों नहीं जाता दरिया का तलातुम तो बहुत दिन की कथा है लेकिन मिरे अंदर का भँवर क्यों नहीं जाता कहते हो कि हो उस्वा-ए-शब्बीर पे क़ाएम दरबार में क्यों जाते हो सर क्यों नहीं जाता जब रूह से कहते हो कि लब्बैक हुसैना फिर जी से यज़ीदों का ये डर क्यों नहीं जाता तुम साहिब-ए-मा'ना हो तो तिमसाल पे मत जाओ इल्ज़ाम कभी आइने पर क्यों नहीं जाता लो शाम गई रात है काबूस है मैं हूँ मैं सुब्ह का भूला हूँ तो घर क्यों नहीं जाता हर संग-ए-दुआ मुझ को लगा फूल से बढ़ कर जब इतनी दुआएँ हैं तो मर क्यों नहीं जाता 'अख़्तर' तिरी गुफ़्तार-ए-फ़ुसूँ-कार में क्या है जो भी इधर आता है उधर क्यों नहीं जाता