इक शख़्स को सुना था कभी बोलते हुए उस रोज़ से लबों पे हैं ताले पड़े हुए ख़ाली लिफ़ाफ़े भेजते रहते हैं हम उसे अलमारियों में बंद हैं सब ख़त लिखे हुए मंज़िल से दूर रहने का दुख किस लिए न हो इक उम्र हो गई हमें घर से चले हुए कालक छुपाई जा न सकी जिन से सोच की वो भी पहन के आए हैं कपड़े धुले हुए शायद इकाई ज़ेहन की तक़्सीम हो गई हम शेर भूलने लगे अपने कहे हुए