इक सुकूँ सा दिखता है आप के अनूप में जैसे कोई बैठा हो सर्दियों की धूप में एक बार जो मिला वो तो हो गया तिरा कोई जादू टोना है तेरे रंग रूप में मेरा बस चले तो मैं चाँद तुम पे वार दूँ तेरा हक़ ये बनता है बा-ख़ुदा सरूप में मेरी ज़ात में तो अब ज़ात एक है बसी जा-ब-जा मकीन है जिस्म-ओ-जाँ के लूप में सब मकान जिस के हैं और ला-मकाँ है जो जिस के सारे रूप हैं रहता है अरूप में दोज़ख़ों की आग यूँ दूर हम से हो गई बख़्श दी बहिश्त जो रब ने माँ के रूप में ढूँडते हो तुम 'ज़फ़र' किन के राज़ को अभी हम ने वो भी पा लिया जो छुपा निरूप में