ग़म-ए-कौन-ओ-मकाँ से फ़िक्र बेश-ओ-कम से गुज़रे हैं फ़क़त इक जाम में हम कितने ही आलम से गुज़रे हैं गुज़रगाह-ए-तमन्ना में गुलिस्ताँ हो कि ज़िंदाँ हो जिधर गुज़रे हैं दीवाने इसी दम-ख़म से गुज़रे हैं ज़माना आश्ना है सिर्फ़ अश्कों के तलातुम से वो तूफ़ाँ और हैं जो दीदा-ए-बे-नम से गुज़रे हैं गुज़रना ख़ाक-ए-दिल से शायद उन को बार गुज़रा है निशान-ए-पा बताते हैं कि कुछ बरहम से गुज़रे हैं हमें ऐ गर्दिश-ए-दौराँ गया-गुज़रा न जान इतना गुज़रने पर जब आए हैं तो हर आलम से गुज़रे हैं किसे कहते हैं वक़्तों की नज़ाकत आप क्या जानें हमी वाक़िफ़ हैं हम किस किस मक़ाम-ए-ग़म से गुज़रे हैं बहारों की तमन्ना में लुटी थी ज़िंदगी जिन की बहार आई तो रक़्स-ए-शो'ला-ओ-शबनम से गुज़रे हैं नज़र को रौशनी क्या 'शौक़' देंगे डूबते तारे कई सूरज हमारे सामने मद्धम से गुज़रे हैं