इक ज़ब्त कि जो हद से गुज़रने नहीं देता मरना कोई चाहे भी तो मरने नहीं देता कितने हैं मुझे काम जो करने नहीं देता ये वक़्त तो इक ज़ख़्म भी भरने नहीं देता ये जज़्ब-ए-तलब कि है जो अब राह-ए-तलब में मंज़िल पे पहुँच कर भी ठहरने नहीं देता ये हाल का एहसाँ है जो माज़ी का कोई नक़्श अब आइना-ए-दिल पे उभरने नहीं देता इक ग़म है किसी का जो किसी हाल में 'तारिक़' शीराज़ा-ए-हस्ती को बिखरने नहीं देता