एवज़ वफ़ा का जफ़ा से सितम-शिआ'र न दे सुकून गर नहीं देता तो इंतिशार न दे तसल्लियाँ मुझे बे-कार ग़म-गुसार न दे न होगा फ़ाएदा कुछ आरज़ी बहार न दे बहार की है तलब मुझ को बाग़बाँ लेकिन ख़िज़ाँ-नसीब जो हो वो मुझे बहार न दे नज़र न आए मुझे जिस में दोस्त की सूरत तू ऐसा आइना-ए-क़ल्ब किर्दगार न दे तलब है गर्मी-ए-पहलू-ए-दोस्त की मुझ को हवा-ए-सर्द न दे मुझ को जूएबार न दे हवा-ए-ज़ुल्फ़ से सब को सुकून मिलता है ये और बात है दिल को मिरे क़रार न दे असीर-ए-हल्क़ा-ए-गेसू करेगा आलम को किसी हसीन को अल्लाह इक़्तिदार न दे तड़प रहा हूँ मैं ऐसे कि जैसे साँप डसे ख़ुदा किसी को भी सौदा-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार न दे किसी के दुख में न तड़पे जो दिल वो दिल ही नहीं जो ज़ुल्म को न मिटाए वो इख़्तियार न दे ज़बान-ए-ख़ल्क़ को नक़्क़ारा-ए-ख़ुदा न बना बुराइयों का कभी अपनी इश्तिहार न दे सुना है उन की ज़बाँ पर हमारा शिकवा है ख़ुदा हमारी समाअ'त को ए'तिबार न दे पड़े न दिल से कहीं उन के गर्द-ए-रंज-ओ-अलम पता लहद का उठ उठ कर उन्हें ग़ुबार न दे 'फ़ज़ा' को जल्वा-ए-हुस्न अपना एक बार दिखा नज़र को लज़्ज़त-ए-तौक़ीर-ए-इंतिज़ार न दे