हर उजाला नई सहर तो नहीं रात की उम्र रात-भर तो नहीं आदमी चंद गाम बढ़ न सके ज़िंदगी इतनी मुख़्तसर तो नहीं इक उजाला सा साथ रहता है सोचता हूँ तिरी नज़र तो नहीं एक हंगाम है बयाबाँ में कोई आमादा-ए-सफ़र तो नहीं वक़्त बे-शक अज़ीम है लेकिन मुझ से तुझ से अज़ीम-तर तो नहीं दूर कुछ साए से हैं सहरा में राह-ए-गुम-कर्दा हम-सफ़र तो नहीं आप जो भी कहें वो सच 'अजमल' आप अब इतने मो'तबर तो नहीं