फ़हमीदा है जो तुझ को तो फ़हमीद से निकल और दीद का जो शौक़ है तो दीद से निकल जिंदान-ए-हिज्र में हमें सौंपा था इश्क़ ने आए हैं हम नसीबों की ताईद से निकल क़ालिब में मेरे यारो भला क्या समावी दम जब जान को कहे कोई ताकीद से निकल तश्बीब में भी लुत्फ़ है इक ऐ क़सीदा-गो इतना शिताब भी तू न तम्हीद से निकल मिस्रे को पहुँचे मिस्रा-ए-सानी बुरा है क्या कर ले निकाह आलम-ए-तजरीद से निकल कर तू उयूब-ए-नज़्म से परहेज़ ऐ फुलाँ शाएर है तो तनाफ़ुर ओ ताक़ीद से निकल हैं याद कब ऐ मिरी वहशत के रंग-ढंग मजनूँ गया है दश्त को तक़लीद से निकल वो मस्त मैं नहीं हूँ कि मस्तों की खा के धूल जाऊँ शराब-ख़ाना-तौहीद से निकल हो 'मुसहफ़ी' तू इल्म-ए-इलाही का आश्ना क़ैद-ए-अनासिर और मवालीद से निकल