फैला अजब ग़ुबार है आईना-गाह में मुश्किल है ख़ुद को ढूँढना अक्स-ए-तबाह में जल-बुझ चुका है ख़्वाहिश-ए-नाकाम से वजूद परछाईं फिर रही है मकान-ए-सियाह में मैं वो अजल-नसीब कि क़ातिल हूँ अपना-आप होता हूँ रोज़ क़त्ल किसी क़त्ल-गाह में रक्खा गया हूँ इज़्ज़त-ओ-तौक़ीर का असीर बाँधा गया है सर को ग़ुरूर-ए-कुलाह में हलकान में नहीं तिरी ख़ातिर सर-ए-हुजूम सब मर रहे हैं हसरत-ए-यक-दो-निगाह में