ख़ुद मिरी आँखों से ओझल मेरी हस्ती हो गई आईना तो साफ़ है तस्वीर धुँदली हो गई साँस लेता हूँ तो चुभती हैं बदन में हड्डियाँ रूह भी शायद मिरी अब मुझ से बाग़ी हो गई फ़ाश कर दीं मैं ने ख़ुद अंदर की बे-तर्तीबियाँ ज़िंदगी आरइशों में और नंगी हो गई प्यार करती हैं मिरे रस्तों से क्या क्या बंदिशें तोड़ दी ज़ंजीर तो दीवार ऊँची हो गई मेरी जानिब आए पस-मंज़र से पत्थर बे-शुमार रंग-ए-दुनिया देख कर बीनाई ज़ख़्मी हो गई पड़ गया पर्दा समाअत पर तिरी आवाज़ का एक आहट कितने हंगामों पे हावी हो गई कर गया है मुब्तला-ए-कर्ब और इक सानेहा और कुछ दिन ज़िंदा रहने की तलाफ़ी हो गई ख़्वाहिशों की आग भी भड़काएगी अब क्या मुझे राख भी मेरी 'मुज़फ़्फ़र' अब तो ठंडी हो गई