फ़िराक़-ए-यार के लम्हे गुज़र ही जाएँगे चढ़े हुए हैं जो दरिया उतर ही जाएँगे तमाम रात दर-ए-मै-कदा पे काटी है सहर क़रीब है अब अपने घर ही जाएँगे तू मेरे हाल-ए-परेशाँ का कुछ ख़याल न कर जो ज़ख़्म तू ने लगाए हैं भर ही जाएँगे मियान-दार-ओ-शबिस्तान-ए-यार बैठे हैं जिधर इशारा-ए-दिल हो उधर ही जाएँगे जुलूस-ए-नाज़ कभी तो इधर से गुज़रेगा कभी तो दिल के मुक़द्दर सँवर ही जाएँगे यही रहेगा जो अंदाज़-ए-ना-शनासाई तुम्हारे चाहने वाले तो मर ही जाएँगे अभी छिड़ी भी न थी दास्तान-ए-अहद-ए-वफ़ा किसे ख़बर थी कि वो यूँ मुकर ही जाएँगे जमाल-ए-यार की नादीदा ख़ल्वतों में 'ज़हीर' अगर गए तो ये आशुफ़्ता-सर ही जाएँगे