फ़र्ज़ बरसों की इबादत का अदा हो जैसे बुत को यूँ पूज रहे हैं कि ख़ुदा हो जैसे एक पुर-पेच ग़िना एक हरीरी नग़्मा हाए वो हुस्न कि जंगल की सदा हो जैसे इश्क़ यूँ वादी-हिज्राँ में हुआ महव-ए-ख़िराम ख़ारज़ारों में कोई आबला-पा हो जैसे आरिज़ों पर वो तिरे ताबिश-ए-पैमान-ए-वफ़ा चाँदनी रात के चेहरे पे हया हो जैसे इस तरह दाग़ दमकते हैं दिल-ए-वहशी पर क़ैस के जिस्म पे फूलों की अबा हो जैसे कितना दिलकश है तिरी याद का पाला हुआ अश्क सीना-ए-ख़ाक पे महताब गिरा हो जैसे रतजगे वो भी नशात-ए-ग़म-ए-महबूब के साथ हुस्न वालों ने बड़ा काम किया हो जैसे हिज्र की रात अजब रंग है पैमाने का दस्त मय-ख़्वार में बुझता सा दिया हो जैसे ख़ाक-ए-दिल पर तिरे सय्याल तसव्वुर का ख़िराम रेग-ए-सहरा पे रवाँ बाद-ए-सबा हो जैसे आज उस शोख़ की चितवन का ये आलम है 'ज़हीर' हुस्न अपनी ही अदाओं से ख़फ़ा हो जैसे