फ़ज़ा-ए-नम में सदाओं का शोर हो जाए वो मुस्कुरा दे ज़रा सा तो भोर हो जाए कभी जो उतरूँ मैं रक़्स-ए-सुख़न के सहरा में तो अपना हाल भी मानिंद-ए-मोर हो जाए वो मय-कदे से भी निकले तो पाक-बाज़ रहे मैं उस की आँखों से पी लूँ तो शोर हो जाए नज़र में फूल हो काग़ज़ पे एक सहरा हो तो यूँ ग़ज़ल का कोई ओर-छोर हो जाए जो फ़े'अल-ए-अस्ल को मैं नज़्म करने बैठूँ तो बदन से लहर उठे पोर पोर हो जाए हर एक रात वही डिश हो ज़ाइक़ा भी वही तो फिर मिज़ाज-ए-तरह-दार बोर हो जाए ये शामियाना सुख़न का क़रार-ए-जाँ ठहरा यहाँ क़याम करे जो पटोर हो जाए मुराक़िबा में कोई आगे छम से इतराए तो फिर फ़क़ीर के दिल में भी चोर हो जाए मगर ये दिल कि किसी और का नहीं रखता दिमाग़ कहता है तू मेरी और हो जाए वो इक बदन कि जो सर-चश्मा-ए-तसव्वुर हो तो पा-बरहना सफ़र में भी ज़ोर हो जाए जो सुन ले 'क़ासमी' तेरी ग़ज़ल तो पत्थर भी मजाल है कि वो इतना कठोर हो जाए