फ़ख़्र समझा दर-ए-दिलदार पे मर जाने को कैसे दानाई ये सूझी तिरे दीवाने को नाज़-बरदारों पे सब नाज़ हुआ करते हैं कौन तकलीफ़ दिया करते हैं बेगाने को क्यों वसीले की ज़रूरत हो तिरी चाहत में क्या सिखाता है मोहब्बत कोई परवाने को मैं तो जन्नत में भी जाने का कभी नाम न लूँ जब तक आएँगी न हूरें मिरे ले जाने को उस के वा'दों से हो क्या ख़ाक तसल्ली 'सैफ़ी' देर लगती ही नहीं जिस के मुकर जाने को