हर एक अहद में जो संगसार होता रहा लहू लहू मैं उसी हर्फ़ के बदन में हूँ ज़बान क्यूँ नहीं बनती है हम-नवा दिल की ये शख़्स कौन है मैं किस के पैरहन में हूँ मिरे लहू से ही उस ने सिपर का काम लिया उसे ख़बर थी कि मैं ताक़ अपने फ़न में हूँ हर आइने में है महफ़ूज़ मेरी ही तस्वीर बहुत दिनों से मैं ख़ुद अपनी अंजुमन में हूँ सदाएँ देता है 'इशरत' कोई मिरे अंदर कि मैं रफ़ीक़ तिरा राह-ए-पुर-शिकन में हूँ