फ़लक तो क्या ज़मीं पर भी नहीं हैं मिरे पाँव कहीं पर भी नहीं हैं कभी आँसू गुमाँ पर मुतमइन थे मगर अब तो यक़ीं पर भी नहीं हैं ये कब उड़ने की बातें कर रहे हो अभी मौसम नहीं पर भी नहीं हैं जो हम हैं दाद से महरूम तो क्या ज़बान-ए-नुक्ता-चीं पर भी नहीं हैं करें क्या मुतमइन 'आसिम' किसी को मकाँ अपने मकीं पर भी नहीं हैं