जब तक मिरा सुकून अज़िय्यत नहीं बना मैं ख़्वाब ही रहा हूँ हक़ीक़त नहीं बना लिक्खा नहीं कभी उसे शे'रों के दरमियाँ जो शेर रौशनी की अलामत नहीं बना इस कार-ए-आशिक़ी में बड़ी भूल हो गई वो शौक़ ही रहा है अक़ीदत नहीं बना अपना अलग मिज़ाज था चुप-चाप काट दी मैं शहर-ए-दिल-फ़रेब की ज़ीनत नहीं बना ये हाथ घिस चले हैं उसी कार-ए-शौक़ में 'आसिम' कोई भी अक्स सलामत नहीं बना