उन आँखों का मुझ से कोई वा'दा तो नहीं है थोड़ी सी मोहब्बत है ज़ियादा तो नहीं है उस्लूब-ए-नज़र से मिरा मफ़्हूम न समझे वो यार मिरा इतना भी सादा तो नहीं है आग़ाज़ जो की मैं ने नई एक मोहब्बत ये पिछली मोहब्बत का इआदा तो नहीं है सीने में बुझा जाता है दिल मेरा सर-ए-शाम इस ग़म का इलाज आतिश-ए-बादा तो नहीं है फिर से तिरी आँखों में सिवा रंग-ए-मोहब्बत फिर तर्क-ए-मोहब्बत का इरादा तो नहीं है पर्वाज़ के सब ख़्वाब यहीं रक्खे हैं मैं ने गो कुंज-ए-क़फ़स इतना कुशादा तो नहीं है ख़ानों में भटकता नज़र आया मुझे इंसान शतरंज ज़माना का पियादा तो नहीं है जाते हैं कहीं और पहुँचते हैं कहीं और इक और भी जादा पस-ए-जादा तो नहीं है