फ़रेब-ए-शौक़ में आ कर सुकून पा न सका वो चोट खाई कि जिस को कभी भुला न सका ये सिलसिला रहे क़ाएम जफ़ा की उम्र दराज़ कि तेरे नाज़ कोई बुल-हवस उठा न सका फ़रेब-कार ज़माने में हसरतों का चराग़ बुझाने वाले बहुत थे कोई जला न सका फँसा गई मुझे उलझन में यूँ अदा-ए-सुकूत कि अपनी तिश्नगी-ए-शौक़ भी बुझा न सका मुझे तो इस का है रोना कि रो नहीं सकता शिकायत इस की नहीं है कि मुस्कुरा न सका नुक़ूश-ए-हस्ती-ए-फ़ानी बने मिटे लेकिन लकीरें अपने मुक़द्दर की मैं मिटा न सका 'नवाब' ख़ुश है इसी पर कि हो गया तेरा ये ग़म नहीं है कि अपना तुझे बना न सका