मैं मो'तबर हूँ इश्क़ मिरा मो'तबर नहीं आँखों में अश्क-ए-ग़म नहीं नेज़े पे सर नहीं कुछ नक़्श रह गए हैं बुज़ुर्गों की शान के अब शहर-ए-आरज़ू में किसी का भी घर नहीं हमराह चाँद के तो सितारों का है हुजूम सूरज के साथ कोई शरीक-ए-सफ़र नहीं बदली हुई फ़ज़ा है ग़ज़ल के मकान की चंगेज़-ख़ाँ के शहर में 'ग़ालिब' का घर नहीं छत आसमान है तो बिछौना ज़मीन है अपने मकान में कहीं दीवार-ओ-दर नहीं नाकामियों पे नीम चबाने लगे हैं लोग 'अंजुम' ये ज़िंदगानी है ख़्वाबों का घर नहीं