न-जाने कितने लहजे और कितने रंग बदलेगा वो अपने हक़ में ही सारे उसूल-ए-जंग बदलेगा ख़ला में तैरते मस्कन रिहाइश के लिए होंगे ये मुस्तक़बिल मिरा तहज़ीब-ए-ख़िश्त-ओ-संग बदलेगा दर-ओ-दीवार क्या जानें खुला-पन आसमानों का कुशादा-दिल वही होगा जो ज़ेहन-ए-तंग बदलेगा बढ़ाएगा वो अपने क़द को बाँसों पर खड़े हो कर कभी तारीख़ बदलेगा कभी फ़रहंग बदलेगा अमीर-ए-शहर ने हम को सगान-ए-शहर समझा है वो अपना काम रोकेगा न अपना ढंग बदलेगा बहुत छोटा सही ये दिल मगर 'अंजुम' ये मुमकिन है तवाज़ुन इश्क़ का अब तो यही पासंग बदलेगा