फ़ासिक़ जो अगर आशिक़-ए-दीवाना हुआ तो क्या दुनिया के मतालिब को फ़रज़ाना हुआ तो क्या ग़फ़लत में कोई पड़ कर गर उम्र को खो डाले बा'द इस के अगर समझा फिर स्याना हुआ तो क्या ये उम्र ग़नीमत है जो दम कि गुज़रता है गर ख़ाना हुआ तो क्या वीराना हुआ तो क्या नज़्ज़ारा तो कर ऐ दिल हो शान में दिलबर का गर भूका जो टल जावे फिर खाना हुआ तो क्या दे जाम तलत्तुफ़ से साक़ी ब-लब-ए-तिश्ना दिल प्यास से जब कुमला पैमाना हुआ तो क्या है काम सुते मतलब बर आवे किसी ढब से काबा जो हुआ तो क्या बुत-ख़ाना हुआ तो क्या जो मर्द-ए-यगाना है नफ़्स अपने से लड़ता है गर और तरह कोई मर्दाना हुआ तो क्या उलझा है ये दिल प्यारे ज़ुल्फ़ अपनी को सुलझावे जब मर गए जानी हम फिर शाना हुआ तो क्या मुखड़े की झमक साजन टुक हम को भी दिखलाओ गर आगे रक़ीबों के झमकाना हुआ तो क्या गर सैर मयस्सर हो तुझ हुस्न के बाग़िस्ताँ बा'द इस के अगर मुझ को मर जाना हुआ तो क्या दिल अपने बेगाने से कुछ हम ने न फल पाया गर अपना हुआ तो क्या बेगाना हुआ तो क्या कहता था मैं इस दिल को आशिक़ तो नहीं होना अब बस के अगर समझा पछताना हुआ तो क्या मस्ताना हमेशा रहो ऐ आशिक़-ए-'अफ़रीदी' बे-इश्क़ अगर कोई मर्दाना हुआ तो क्या