फ़िक्र-ए-नाकामी-ए-तदबीर करूँ या न करूँ हम-नशीं शिकवा-ए-तक़दीर करूँ या न करूँ दर्द की आख़िरी मंज़िल है मसर्रत-आगीं तलख़ी-ए-दहर की तफ़्सीर करूँ या न करूँ रब्त-ए-बाहम ही से है उन के ज़माना क़ाएम हुस्न को इश्क़ से ता'बीर करूँ या न करूँ फिर उठेगा वही तूफ़ान-ए-हवादिस ऐ दोस्त फिर से दुनिया को मैं ता'मीर करूँ या न करूँ फिर से मश्कूक हुए मेरी मोहब्बत के नुक़ूश फिर नए तौर से तहरीर करूँ या न करूँ शायद इक नुस्ख़ा-ए-इक्सीर की सूरत निकले इस ग़म-ए-दिल की मैं तफ़्सीर करूँ या न करूँ