फ़िक्र-ए-जहाँ से खेले ज़ोर-ए-बुताँ से खेले हम दौर-ए-ज़िंदगी में हर इम्तिहाँ से खेले फूलों से कोई खेला कलियों से कोई उलझा हम दर्द-आश्ना थे दर्द-ए-निहाँ से खेले जब बिछड़े दोस्तों की याद आई बैठे बैठे हम बे-क़रार हो कर अश्क-ए-रवाँ से खेले आसाँ न था गुज़रना कुछ राह-ए-आशिक़ी से हस्ती मिटाई अपनी अपनी ही जाँ से खेले दुनियाँ की फ़िक्र कैसी उक़्बा का ख़ौफ़ कैसा साक़ी की इक नज़र पर हम दो-जहाँ से खेले गो हुस्न-ए-दिलरुबा है दिल की ख़लिश बला है खेले सँभल के वो जो इश्क़-ए-बुताँ से खेले माज़ी ने दी सदाएँ देखा मगर न मुड़ कर हम यूँ 'हबीब' अक्सर उम्र-ए-रवाँ से खेले