फिर इक नए सफ़र पे चला हूँ मकान से कोई पुकारता है मुझे आसमान से आवाज़ दे रहा है अकेला ख़ुदा मुझे मैं उस को सुन रहा हूँ हवाओं के कान से कुछ दिन तो बे-घरी का तमाशा भी देख लूँ यूँ भी है जी उचाट पुराने मकान से दोनों ही हम-सफ़र थे हवाओं के दोश पर पर मैं हूँ चूर चूर सफ़र की तकान से पैरों तले दबी है वही रेत की चटान मुझ को हवा ने फेंक दिया आसमान से वो ज़द पे आ गया था निहत्ता भी था मगर मैं ने ही कोई तीर न छोड़ा कमान से मेरे लबों पे खेल रही है वही हँसी हर-चंद रेत रेत हुआ हूँ चटान से