फ़िरऔन कोई कोई नमरूद हो गया है अफ़सोस तुख़्म-ए-इंसाँ नाबूद हो गया है ज़र जब से मेरे घर में मौजूद हो गया है हर ग़ैर मेरा तब से मौदूद हो गया है होता था पहले इंसाँ में एक इंसाँ मख़्फ़ी इंसान जो मगर अब मरदूद हो गया है सदियों से उन लबों को जुम्बिश नहीं दी जिस ने उस से समाज सारा ख़ुश-नूद हो गया है नफ़रत का वो पुजारी है बुग़्ज़ उस का शेवा सो प्यार उस के आगे बे-सूद हो गया है उस के सभी मसाइल मादूम करते करते मेरा सुकून सारा मफ़क़ूद हो गया है जब से गया तू 'नाक़िर' को छोड़ कर यहाँ से सामान याँ का तब से आलूद हो गया है