फ़ित्ना उट्ठे कोई या घात में दुश्मन बैठे कार-ए-उल्फ़त पे तो अब हज़रत-ए-दिल ठन बैठे शैख़ का'बे में कलीसा में बरहमन बैठे हम तो कूचे में तिरे मार के आसन बैठे सू-ए-दौलत नज़र आई न जो राह-ए-ए'ज़ाज़ मसनद-ए-सब्र-ओ-तवक्कुल ही पे हम तन बैठे हूँ मैं वो रिंद अगर हश्र में मुल्ज़िम ठहरूँ फ़ैसले के लिए हूरों का कमीशन बैठे इंक़िलाब-ए-रविश-ए-चर्ख़ को देख ऐ 'अकबर' कल जो थे दोस्त मिरे आज 'अदू बन बैठे हिन्द से आप को हिजरत हो मुबारक 'अकबर' हम तो गंगा ही पे अब मार के आसन बैठे