है दो-रोज़ा क़याम-ए-सरा-ए-फ़ना न बहुत की ख़ुशी है न कम का गिला ये कहाँ का फ़साना-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ जो गया वो गया जो मिला वो मिला न बहार जमी न ख़िज़ाँ ही रही किसी अहल-ए-नज़र ने ये ख़ूब कही ये करिश्मा-ए-शान-ए-ज़हूर हैं सब कभी ख़ाक उड़ी कभी फूल खिला नहीं रखता मैं ख़्वाहिश-ए-‘ऐश-ओ-तरब यही साक़ी-ए-दह्र से बस है तलब मुझे ता’अत-ए-हक़ का चखा दे मज़ा न कबाब खिला न शराब पिला है फ़ुज़ूल ये क़िस्सा-ए-ज़ैद-ओ-बकर हर इक अपने 'अमल का चखेगा समर कहो ज़ेहन से फ़ुर्सत-ए-‘उम्र है कम जो दिला तो ख़ुदा ही की याद दिला