फ़ुग़ाँ कि रहबर-ए-राह-ए-तलब हैं ख़ुद कज-रौ मिले तो कैसे मिले अब सुराग़-ए-मंज़िल-ए-नौ ये रंग-ओ-नूर का आलम ये मेहर-ओ-माह की ज़ौ दर-अस्ल है मिरे हुस्न-ए-ख़याल का परतौ जो ज़िंदगी थी हलाक-ए-फ़ुसून-ए-रस्म-ए-कुहन सँवर रही है ब-फ़ैज़-ए-शुऊ'र-ए-आदम-ए-नौ रह-ए-तलब में किसी राहज़न का ज़िक्र ही क्या जो राहबर हैं गुज़र उन से बच के ऐ रहरौ हमें तो मंज़िल-ए-मक़्सूद तक पहुँचना है सवाद-ए-शाम करे रहबरी कि सुब्ह-ए-नौ वो बात जिस का हक़ाएक़ से वास्ता भी न था ख़ुशा कि बन गई उन्वान हर फ़साना-ए-नौ तरस रहा हूँ मैं तकमील-ए-आरज़ू के लिए ये आशिक़ी का सिला है कि हासिल-ए-तग-ओ-दौ 'अतीक़' मौत है सिर्फ़ इस लिए अज़ीज़ मुझे कि ज़िंदगी है भड़कते हुए चराग़ की लौ