फ़ुर्क़त में तुझ को मैं ने पुकारा कभी कभी मिलता है दर्द को भी सहारा कभी कभी तेरा पता न कोई भी मुझ को बता सका हर आस्ताँ पे तुझ को पुकारा कभी कभी रहबर ने फेर ली हैं निगाहें तो क्या हुआ रहज़न से भी मिला है सहारा कभी कभी उम्र-ए-दराज़ मुझ को वो शायद अता करे पाँव को मैं ने अपने पसारा कभी कभी सज्दे किए हैं दर पे तिरे मैं ने बार बार फ़ुर्क़त का वक़्त ऐसे गुज़ारा कभी कभी तेरे ही नाज़ मैं ने उठाए हैं रात दिन गेसू-ए-अम्बरीं को सँवारा कभी कभी दिल को 'रफ़ीक़' डूबते देखा है बारहा यादों ने उस को फिर भी उभारा कभी कभी