ग़ज़लों में अब वो रंग न रानाई रह गई कुछ रह गई तो क़ाफ़िया-पैमाई रह गई लफ़्ज़ों का ये हिसार बुलंदी न छू सका यूँ भी मिरे ख़याल की गहराई रह गई क्या सोचिए कि रिश्ता-ए-दीवार क्या हुआ धूपों से अब जो मारका-आराई रह गई कब जाने साथ छोड़ दें दिल की ये धड़कनें हर वक़्त सोचती यही तन्हाई रह गई अपने ही फ़न की आग में जलते रहे 'शमीम' होंटों पे सब के हौसला-अफ़ज़ाई रह गई