हर एक लफ़्ज़ में पोशीदा इक अलाव न रख है दोस्ती तो तकल्लुफ़ का रख-रखाव न रख हर एक अक्स रवानी की नज़्र होता है नदी से कौन ये जा कर कहे बहाओ न रख ये और बात ज़माने पे आश्कार न हो मिरी नज़र से छुपा कर तू दिल का घाव न रख हिसार-ए-ज़ात से कट कर तो जी नहीं सकते भँवर की ज़द से यूँ महफ़ूज़ अपनी नाव न रख ये इंकिसार मुबारक 'शमीम' तुझ को मगर अब इतना शाख़-ए-समर-दार में झुकाव न रख