ग़लत कि मेरे सर-ए-दार हौसले टूटे सलीब-ए-जिस्म से साँसों के राब्ते टूटे ये कैसे रुख़ पे बनाए मकान लोगों ने हवा चली है तो घर घर के आइने टूटे न जाने किस की नज़र रौशनी की दुश्मन थी चराग़ जिस में जले थे वो ताक़चे टूटे क़बीले अपनी ही बस्ती के जंग-जू निकले ख़ुलूस-ओ-सिद्क़-ओ-मोहब्बत के ज़ाब्ते टूटे ज़मीन डूब गई नफ़रतों की बारिश में वो मंज़िलें हैं कि मिलने के रास्ते टूटे ज़माना पढ़ता है चेहरे का अब लिखा 'तसनीम' हमारी ज़ात पे ये कैसे हादसे टूटे