ग़म छेड़ता है साज़-ए-रग-ए-जाँ कभी कभी होती है काएनात ग़ज़ल-ख़्वाँ कभी कभी हम ने दिए हैं इश्क़ को तेवर नए नए उन से भी हो गए हैं गुरेज़ाँ कभी कभी ऐ दौलत-ए-सुकूँ के तलब-गार देखना शबनम से जल गया है गुलिस्ताँ कभी कभी हम बे-कसों की बज़्म में आएगा और कौन आ बैठती है गर्दिश-ए-दौराँ कभी कभी कुछ और बढ़ गई है अंधेरों की ज़िंदगी यूँ भी हुआ है जश्न-ए-चराग़ाँ कभी कभी